संस्कृति/ संस्कार

कतिया समाज के दवारा अपनाये जाने वाला संस्कार  अतिथि देवो भव:, जानिए अतिथि को देवता क्यों मानते हैं?

अतिथि कौन? वेदों में कहा गया है कि अतिथि देवो भव: अर्थात अतिथि देवतास्वरूप होता है। अतिथि के लक्षणों का वर्णन करते हुए महर्षि शातातप (लघुशाता 55) कहते हैं कि जो सज्जन बिना किसी प्रयोजन, बिना बुलाए, किसी भी समय और किसी भी स्थान से घर में उपस्थित हो जाए, उसे अतिथिरूपी देव ही समझना चाहिए। सूतजी के कथनानुसार अतिथि की सेवा-सत्कार से बढ़कर कोई अन्य महान कार्य नहीं है। महाभारत के वनपर्व में अतिथि सेवा के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि जो व्यक्ति अतिथि को चरण धोने के जल, पैरों की मालिश के लिए तेल, प्रकाश के लिए दीपक, भोजन के लिए अन्न और रहने के लिए स्थान देते हैं, वे कभी यमद्वार नहीं देखते।अतिथि अपनी चरण रज के साथ जब प्रवेश करते हैं और घर का आतिथ्य ग्रहण करते हैं तो अपना समस्त पुण्य घर में छोड़ जाते हैं। अत: अतिथि का सदैव यशाशक्ति सम्मान करना चाहिए। मात्र एक ग्लास शीतल जल भी अगर आप मुस्कुरा कर देते हैं तो राहुजनित समस्त दोष दूर हो जाते हैं। अगर आप अतिथि को मीठा देते हैं तो मंगल संबंधी समस्याओं से मुक्ति मिल जाती है। जब आप अतिथि को वस्त्र आदि भेंट में देते हैं तो गुरु एवं शुक्र संबंधी दोष समाप्त हो जाते हैं। जब आप अतिथि को सुंदर स्वच्छ शैया सोने के लिए देते हैं तो आपके शनि संबंधी दोष दूर हो जाते हैं।

मांग में सिंदूर क्यों सजाती हैं विवाहिता?

मांग में सिंदूर  सजाना सुहागिन स्त्रियों का प्रतीक माना जाता है। यह जहां मंगलदायक माना जाता है, वहीं इससे इनके रूप-सौंदर्य में भी निखार आ जाता है। मांग में सिंदूर सजाना एक वैवाहिक संस्कार भी है।

मांग में लाल, केशरिया, मेरुम रंग का सिंदूर लगाया जाता है जो लक्ष्मी जी का स्वरूप और हनुमान जी का भी रंग है जिससे स्त्रियां बलवान, शक्तिशाली भी बनती है। 

शरीर-रचना विज्ञान के अनुसार सौभाग्यवती स्त्रियां मांग में जिस स्थान पर सिंदूर सजाती हैं, वह स्थान ब्रह्मरंध्र और अहिम नामक मर्मस्थल के ठीक ऊपर है। स्त्रियों का यह मर्मस्थल अत्यंत कोमल होता है।

इसकी सुरक्षा के निमित्त स्त्रियां यहां पर सिंदूर लगाती हैं। सिंदूर में कुछ धातु अधिक मात्रा में होता है। इस कारण चेहरे पर जल्दी झुर्रियां नहीं पड़तीं और स्त्री के शरीर में विद्युतीय उत्तेजना नियंत्रित होती है।

हनुमानजी को सिंदूर क्यों चढ़ता है?

अद्भुत रामायण में उल्लेखित एक घटना के अनुसार एक दिन भूख लगने पर हनुमानजी सीता माता के पास पहुंचे। उन्होंने वहां उनकी मांग में सिंदूर लगा देखा तो पूछा- माता! आपने अपनी मांग में यह कैसा लाल द्रव्य लगा रखा है? इस पर सीता माता ने जवाब दिया, ‘पुत्र! सुहागिन स्त्रियां इसे अपने स्वामी की दीर्घायु के लिए जीवनभर लगाती हैं। इससे स्वामी प्रसन्न भी रहते हैं।

इसके बाद हनुमानजी ने माता जानकी के कथन पर गहराई से विचार किया। उन्होंने सोचा कि क्यों न मैं भी इसे अपने पूरे शरीर पर लगाकर भगवान श्रीराम को अमर कर दूं। यह सोचकर कलेवा करने के बाद हनुमानजी ने अपने पूरे शरीर पर सिंदूर धारण कर लिया तभी से हनुमानजी को सिंदूर चढ़ाते हैं।

गर्भाधान संस्कार, कैसे करें पढ़ें

गृहस्थ आश्रम अर्थात विवाह के उपरांत संतानोपत्ति करना प्रत्येक दंपति का कर्तव्य है। जहां मां बनकर एक स्त्री की पूर्णता होती है  वहीं पुरुष के लिए संतान पितृ-ऋण से मुक्ति प्रदान करने वाली होती है। षोडश संस्कारों के क्रम में ‘गर्भाधान’ को प्रथम संस्कार माना गया है।

आज आधुनिकीरण की अंधी दौड़ व पाश्चात्य संस्कृति के प्रवाह में हमने ‘गर्भाधान’ संस्कार की बुरी तरह उपेक्षा की है। वर्तमान समय में ‘गर्भाधान’ को एक संस्कार की तरह करना लुप्त हो गया है जिसके गंभीर दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। बिना उचित रीति व श्रेष्ठ मुहूर्त के ‘गर्भाधान’ करना निकृष्ट व रोगी संतान के जन्म का कारण बनता है। एक स्वस्थ, आज्ञाकारी, चरित्रवान संतान ईश्वर के वरदान के सदृश होती है किंतु इस प्रकार की संतान तभी उत्पन्न हो सकती है, जब ‘गर्भाधान’ उचित रीति व शास्त्रों के बताए नियमानुसार किया जाए।

आइए जानते हैं कि ‘गर्भाधान’ संस्कार करते समय ध्यान रखने योग्य बातें कौन सी हैं जिनसे कि दंपति श्रेष्ठ आत्मा को गर्भ में आमंत्रित कर सकते हैं-

गर्भाधान का समय

श्रेष्ठ संतान के जन्म के लिए आवश्यक है कि ‘गर्भाधान’ संस्कार श्रेष्ठ मुहूर्त में किया जाए। ‘गर्भाधान’ कभी भी क्रूर ग्रहों के नक्षत्र में नहीं किया जाना चाहिए। ‘गर्भाधान’ व्रत, श्राद्धपक्ष, ग्रहणकाल, पूर्णिमा व अमावस्या को नहीं किया जाना चाहिए। जब दंपति के गोचर में चन्द्र, पंचमेश व शुक्र अशुभ भावगत हों तो ‘गर्भाधान’ करना उचित नहीं होता, आवश्यकतानुसार अनिष्ट ग्रहों की शांति-पूजा कराकर गर्भाधान संस्कार को संपन्न करना चाहिए। शास्त्रानुसार रजोदर्शन की प्रथम 4 रात्रि के अतिरिक्त 11वीं और 13वीं रात्रि को भी ‘गर्भाधान’ नहीं करना चाहिए। ‘गर्भाधान’ सदैव सूर्यास्त के पश्चात ही करना चाहिए। ‘गर्भाधान’ दक्षिणाभिमुख होकर नहीं करना चाहिए। ‘गर्भाधान’ वाले कक्ष का वातावरण पूर्ण शुद्ध होना चाहिए। ‘गर्भाधान’ के समय दंपति के आचार-विचार पूर्णतया विशुद्ध होने चाहिए।

‘गर्भाधान’ से पूर्व संकल्प व प्रार्थना करें-

‘गर्भाधान’ वाले दिन प्रात:काल गणेशजी का विधिवत पूजन व नांदी श्राद्ध इत्यादि करना चाहिए। अपने कुलदेवता व पूर्वजों का आशीर्वाद लेना चाहिए। ‘गर्भाधान’ के समय गर्भाधान से पूर्व संकल्प व प्रार्थना करनी चाहिए एवं श्रेष्ठ आत्मा का आवाहन कर निमंत्रित करना चाहिए। ‘गर्भाधान’ के समय दंपति की भावदशा एवं वातावरण जितना परिशुद्ध होगा, श्रेष्ठ आत्मा के गर्भप्रवेश की संभावना उतनी ही बलवती होगी।

सम-विषम रात्रियों की महत्ता-

गर्भाधान-संस्कार में रात्रियों की पृथक-पृथक महत्ता होती है। यदि सम रात्रियों में गर्भाधान होता है तब पुत्र उत्पन्न होने की संभावना अधिक होती है। जब विषम रात्रियों में गर्भाधान होता है तब पुत्री उत्पन्न होने की संभावना अधिक होती है। 16वीं रात्रि को होने वाला गर्भाधान श्रेष्ठ पुत्रदायक माना गया है।

आपकी जन्म पत्रिका में तो नहीं ‘ संन्यासी योग’

हमारी सनातन आश्रम व्यवस्था में गृहस्थ आश्रम को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। एक खुशहाल घर-संसार अधिकांश व्यक्तियों का सपना होता है। लेकिन जन्म पत्रिका में कभी-कभी ऐसी ग्रह स्थितियों का निर्माण हो जाता है जिनसे मनुष्य अपने गृहस्थ जीवन से विरक्त व विमुख होकर अध्यात्म के पथ पर अग्रसर हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों को हमारे समाज में ‘साधु-संन्यासी’ कहा जाता है।

आइए जानते हैं वे कौन-सी ग्रह स्थितियां होती हैं जिनके प्रभाव से मनुष्य संन्यासी जीवन व्यतीत करता है। गृहस्थ जीवन के लिए जो ग्रह प्रमुख रूप से उत्तरदायी होते हैं, वे हैं- द्वितीयेश, चतुर्थेश, द्वादशेश, शुक्र व चन्द्र।

जन्म पत्रिका में दूसरा भाव कुटुम्ब व परिवार का होता है, चतुर्थ भाव घर-गृहस्थी एवं द्वादश भाव शैयासुख व भोग-विलास का। वहीं शुक्र भोग-विलास का नैसर्गिक कारक होता है एवं चन्द्र मन का कारक होता है।

यदि इनमें से 4 या अधिक ग्रह षष्ठ, अष्टम या द्वादश जैसे अशुभ भावों में स्थित हों एवं इनमें अधिकांश ग्रहों पर शनि-राहु जैसे पृथकतावादी ग्रहों का प्रभाव हो तो मनुष्य का मन घर-परिवार से विमुख होता है। यदि इन ग्रहों से जन्म पत्रिका में चतुर्ग्रही योग का निर्माण हो व इस युति पर केतु का प्रभाव हो तो मनुष्य उच्च कोटि का संन्यासी व मठाधीश होता है। 

गुरु, आचार्य, पुरोहित, पंडित और पुजारी का फर्क

अक्सर लोग पुजारी को पंडितजी या पुरोहित को आचार्य भी कह देते हैं और सुनने वाले भी उन्हें सही ज्ञान नहीं दे पाता है। यह विशेष पदों के नाम हैं जिनका किसी जाति विशेष से कोई संबंध नहीं। आओ हम जानते हैं कि उक्त शब्दों का सही अर्थ क्या है ताकि आगे से हम किसी पुजारी को पंडित न कहें।

गुरु : गु का अर्थ अंधकार और रु का अर्थ प्रकाश। अर्थात जो व्यक्ति आपको अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए वह गुरु होता है। गुरु का अर्थ अंधकार का नाश करने वाला। अध्यात्मशास्त्र अथवा धार्मिक विषयों पर प्रवचन देने वाले व्यक्तियों में और गुरु में बहुत अंतर होता है। गुरु आत्म विकास और परमात्मा की बात करता है। प्रत्येक गुरु संत होते ही हैं; परंतु प्रत्येक संत का गुरु होना आवश्यक नहीं है। केवल कुछ संतों में ही गुरु बनने की पात्रता होती है। गुरु का अर्थ ब्रह्म ज्ञान का मार्गदर्शक।

आचार्य : आचार्य उसे कहते हैं जिसे वेदों और शास्त्रों का ज्ञान हो और जो गुरुकुल में ‍विद्यार्थियों को शिक्षा देने का कार्य करता हो। आचार्य का अर्थ यह कि जो आचार, नियमों और सिद्धातों आदि का अच्छा ज्ञाता हो और दूसरों को उसकी शिक्षा देता हो। वह जो कर्मकाण्ड का अच्छा ज्ञाता हो और यज्ञों आदि में मुख्य पुरोहित का काम करता हो उसे भी आचार्य कहा जाता था। आजकल आचार्य किसी महाविद्यालय के प्रधान अधिकारी और अध्यापक को कहा जाता है।

पुरोहित : पुरोहित दो शब्दों से बना है:- ‘पर’ तथा ‘हित’, अर्थात ऐसा व्यक्ति जो दुसरो के कल्याण की चिंता करे। प्राचीन काल में आश्रम प्रमुख को पुरोहित कहते थे जहां शिक्षा दी जाती थी। हालांकि यज्ञ कर्म करने वाले मुख्‍य व्यक्ति को भी पुरोहित कहा जाता था। यह पुरोहित सभी तरह के संस्कार कराने के लिए भी नियुक्त होता है। प्रचीनकाल में किसी राजघराने से भी पुरोहित संबंधित होते थे। अर्थात राज दरबार में पुरोहित नियुक्त होते थे, जो धर्म-कर्म का कार्य देखने के साथ ही सलाहकार समीति में शामिल  रहते थे।

पुजारी : पूजा और पाठ से संबंधित इस शब्द का अर्थ स्वत: ही प्रकाट होता है। अर्थात जो मंदिर या अन्य किसी स्थान पर पूजा पाठ करता हो वह पुजारी। किसी देवी-देवता की मूर्ति या प्रतिमा की पूजा करने वाले व्यक्ति को पुजारी कहा जाता है। 

 

पंडित : पंडः का अर्थ होता है विद्वता। किसी विशेष ज्ञान में पारंगत होने को ही पांडित्य कहते हैं। पंडित का अर्थ होता है किसी ज्ञान विशेष में दश या कुशल। इसे विद्वान या निपुण भी कह सकते हैं। किसी विशेष विद्या का ज्ञान रखने वाला ही पंडित होता है। प्राचीन भारत में, वेद शास्त्रों आदि के बहुत बड़े ज्ञाता को पंडित कहा जाता था। इस पंडित को ही पाण्डेय, पाण्डे, पण्ड्या कहते हैं। आजकल यह नाम ब्रह्मणों का उपनाम भी बन गया है। कश्मीर के ब्राह्मणों को तो कश्मीरी पंडितों के नाम से ही जाना जाता है। पंडित की पत्नी को देशी भाषा में पंडिताइन कहने का चलन है।

ब्राह्मण : ब्राह्मण शब्द ब्रह्म से बना है। जो ब्रह्म (ईश्वर) को छोड़कर अन्य किसी को नहीं पूजता, वह ब्राह्मण कहा गया है। जो पुरोहिताई करके अपनी जीविका चलाता है, वह ब्राह्मण नहीं, याचक है। जो ज्योतिषी या नक्षत्र विद्या से अपनी जीविका चलाता है वह ब्राह्मण नहीं, ज्योतिषी है। पंडित तो किसी विषय के विशेषज्ञ को कहते हैं और जो कथा बांचता है वह ब्राह्मण नहीं कथावाचक है। इस तरह वेद और ब्रह्म को छोड़कर जो कुछ भी कर्म करता है वह ब्राह्मण नहीं है। जिसके मुख से ब्रह्म शब्द का उच्चारण नहीं होता रहता, वह ब्राह्मण नहीं।

स्मृति पुराणों में ब्राह्मण के 8 भेदों का वर्णन मिलता है- मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि। 8 प्रकार के ब्राह्मण श्रुति में पहले बताए गए हैं। इसके अलावा वंश, विद्या और सदाचार से ऊंचे उठे हुए ब्राह्मण ‘त्रिशुक्ल’ कहलाते हैं। ब्राह्मण को धर्मज्ञ विप्र और द्विज भी कहा जाता है जिसका किसी जाति या समाज से कोई संबंध नहीं।

।। ॐ संत भूराभगत: नम: ।।

गुरु, आचार्य, पुरोहित, पंडित और पुजारी का फर्क इसलिये बताया जा रहा है जिससे समाज को सभी का ज्ञान हो सके तथा समाज को बेरोजगारी से निजात पाने के लिए युवा बेरोजगारो को पुरोहित बनाकर हिन्दू-धर्म, संस्कारिक, कर्मकांड कर कतिया समाज व् अन्य दुसरो का  कल्याण कर अपनी रोजी-रोटी जीवन यापन कर सके । यह समाजवादी युग हैं जिसमे आज ब्राह्मण समाज, बनिया समाज, क्षेत्रीय समाज आदि ने सैलून, जूता-चप्पल, लांड्री आदि सामाजिक व्यवस्था की निम्न समाज/ जाति का रोजगार अपना लिये हैं इसलिये समाजवादी व्यवस्था के तहत् हमे भी समाज में रोजगार उत्पन्न करने के लिए समाज के व्यक्तियों को प्रशिक्षण दिलाकर पुरोहित बनाया जा रहा हैं ।

संकलनकर्ता: 

        एच.एस. महले (राजकुमार)

  जबलपुर (म.प्र.) इंडिया